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तारापीठ मंदिर का इतिहास

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तारापीठ मंदिर का इतिहास

तारापीठ पश्चिम बंगाल के वीरभूमि जिले में स्थित है। यह रामपुरहाट रेलवे स्टेशन के निकट स्थित है यह जिला धार्मिक महत्व से बहुत प्रसिद्ध है, क्योंकि हिन्दुओं के 51 शक्तिपीठों में से पांच शक्तिपीठ वीरभूमि जिले में ही है। बकुरेश्वर, नालहाटी, बन्दीकेश्वरी, फुलोरा देवी और तारापीठ। तारापीठ यहां का सबसे प्रमुख धार्मिक तीर्थ है। और यह एक सिद्धपीठ भी है। यहां पर एक सिद्ध पुरूष वामाखेपा का जन्म हुआ था, उनका पैतृक आवास आटला गांव में है। जो तारापीठ मंदिर से 2 किमी की दूरी है। कहते है कि वामाखेपा को माँ तारा के मंदिर के सामने महाश्मशान में तारा देवी के दर्शन हुए थे। वही पर वामाखेपा को सिद्धि प्राप्त हुई और वह सिद्ध पुरूष कहलाए। माँ तारा, काली माता का एक रूप है। मंदिर में माँ काली की मूर्ति की पूजा माँ तारा के रूप मे की जाती है।
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तारापीठ मुख्य मंदिर के सामने महाश्मशान है। उसके बाद द्वारिका नदी है, इस नदी में आश्चर्य की बात यह है कि भारत की सब नदियां उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। लेकिन यह नदी दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है।


तारापीठ राजा दशरथ के कुलपुरोहित वशिष्ठ मुनि का सिद्धासन और तारा माँ का अधिष्ठान है। इसलिए यह हिन्दुओं का महातीर्थ कहलाता है। यहां पर सुदर्शन चक्र से छिन्न भिन्न होकर देवी सती की आंख की पुतली का बीच का तारा गिरा था। इसलिए इसका नाम तारापीठ है।

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इस मंदिर को लेकर यह भी मान्यता है कि मां तारा की आराधना से लोगों को हर बीमारी से मुक्ति मिलती है.
पौराणिक मान्यता यह भी है कि हिंदू धर्म में 51 शक्तिपीठों में तारापीठ सिद्धस्थल का सबसे अधिक महत्व है. अब तो बिहार-झारखंड के बॉर्डर पर अवस्थित यह धार्मिक स्थल पश्चिम बंगाल का प्रमुख पर्यटन स्थलों में शामिल हो गया है. इतना ही नहीं, तारापीठ साधना का केंद्र भी है और इसकी वजह से यहां साधु-संत श्रद्धा के साथ साधना करते हैं

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तारापीठ मंदिर का निर्माण और तारापीठ सरोवर


यहां पर एक बार रतनगढ़ के प्रसिद्ध वैश्य रमापति अपने पुत्र को लेकर नाव द्वारा व्यापार करने आये थे। तारापीठ के पास उनका पुत्र सर्प के काटने से मर गया। उन्होंने अपने पुत्र की मृत देह को दूसरे दिन दाह संस्कार करने के लिए रखा, और उस दिन तारापुर में हि ठहर गए। उनके एक सेवक ने उनको तारापीठ के एक बडे तालाब के पास लेजाकर एक आश्चर्यजनक दृश्य दिखाया।

उन्होंने देखा कि मरी हुई मछलियां तालाब के जल के स्पर्श करके जीवित हो उठती है। यह देखकर उनको बहुत खुशी हुई, और अपने पुत्र की मृत देह को वहां लाकर तालाब में फेंक दिया। उसी समय उनका पुत्र जीवित हो गया। उसी दिन से उस तालाब का नाम जीवन कुंड़ पड़ा।
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रमापति वैश्य ने तालाब के पास एक टूटा हुआ मंदिर देखा, और उसमें उन्होंने चंद्रचूड़ अनादि शिवलिंग और तारा माँ की मूर्ति देखी। उन्होंने अपने आप को धन्य माना और अपने पैसे से ही उन्होंने मंदिर की मरम्मत कराई और पूजा की। वे वहां भगवान नारायण की एक मूर्ति स्थापित करना चाहते थे, किन्तु किसी ऋषि के आदेशानुसार माँ तारा देवी की मूर्ति में ही नारायण की की पूजा होगी।  काली और कृष्णा अलग अलग नहीं, उनकी जिस तरह पूजा होनी चाहिये उसी तरह ही उन्होंने पूजा की और काली तथा कृष्ण की मूर्ति के भाव अनुसार एक ही मूर्ति प्रतिष्ठित कराई।
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आइए इसकी महिमा को जानें

कहा जाता है कि महर्षि वशिष्ठ ने इस स्थान पर एक मंदिर भी बनवाया था, जो कालांतर में धरती में समा गया है. वर्तमान में तारापीठ का निर्माण जयव्रत नामक व्यापारी ने कराया था. एक बार इस व्यापारी ने बिजनेस के लिए तारापीठ के पास स्थित गांव पहुंचा और वहीं पर रात गुजारी. कहा जाता है कि रात में मां तारा उनके सपने में आई और उससे कहा कि पास ही एक श्मशान घाट है. उस श्मशान घाट के बीच में एक शिला है. उसे उखाड़कर विधिवत स्थापना करो. व्यापारी ने भी मां की बात पर विश्वास कर उस स्थान की खुदाई कराकर शिला को स्थापित किया. इसके बाद जयव्रत ने भव्य मंदिर बनवाया, जिसमें मां तारा की एक भव्य मूर्ति की स्थापना की गई. इस मूर्ति में देवी तारा की गोद में बाल रूप में भगवान शिव हैं.
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अनवरत जलती रहती है चिता की आग

तारापीठ मंदिर का प्रांगण श्मशान घाट के पास है. इसे महाश्मशान घाट कहा जाता है. इस महाश्मशान घाट की चिता की आग अनवरत जलती रहती है. कभी भी बुझती नहीं है. यहां आने पर लोगों को किसी प्रकार का डर नहीं लगता है. इस मंदिर के चारों ओर द्वारिका नदी बहती है. इस मंदिर में वामा खेपा नामक एक साधक ने मां तारा की साधना करके उनसे सिद्धियां हासिल की थीं. वामा खेपा भी रामकृष्ण परमहंस के समान मां के परम भक्तों में शामिल था.
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सती के नेत्र गिरे थे तारापीठ में

इस स्थान पर सकाम और निष्काम दोनों प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होने की मान्यता है. त्रिताप को जो नाश करती हैं, उसे तारा कहते हैं. ताप चाहे कोई भी हो, विष का ताप हो, दरिद्रता का ताप हो या भय का ताप हो. मां तारा सभी तापों को दूर कर जीव को स्वतंत्र बनाती है. यदि किसी का शरीर रोग से ग्रस्त हो गया है या कोई प्राणी पाप से कष्ट भोग रहा है, वह जैसे ही दिल से तारा-तारा पुकारता है तो ममतामयी मां तारा अपने भक्तों को इस त्रिताप से मुक्त कर देती हैं. तारा अपने शिव को अपने मस्तक पर विराजमान रखती हैं.
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इस तरह करें मां की उपासना

मां तारा को भक्त अपनी उपासना से खुश करते हैं. हालांकि भक्त अपनी आस्था के अनुसार पूजा करते हैं. लेकिन मां का एक मंत्र भक्तों के बीच काफी प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि इस मंत्र से मां काफी प्रसन्न होती हैं. मा का मंत्र नीले कांच की माला से बारह माला प्रतिदिन भक्त जाप करते हैं. मंत्र ‘ऊँ ह्नीं स्त्रीं हुम फट’ के जाप करने से मां काफी प्रसन्न होती हैं. मां कहती हैं कि चिंता मत करो, चिता भूमि में जब मृत्यु वरण करोगे तो मैं तुम्हारे साथ रहूंगी, तुम्हारे सारे पाप, दोष सभी बंधन से मैं मुक्त कर दूंगी.’ मां तारा दस विद्या की अधिष्ठात्री देवी है.
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बंगाल स्थित तारापीठ ऐसे पहुंचें


पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में यह तारापीठ अवस्थित है. इसका निकटतम रेलवे स्टेशन रामपुरहाट है, जो नई दिल्ली-हावड़ा वाया भागलपुर रेलखंड पर अवस्थित है. रामपुरहाट से 8 किमी की दूरी पर सड़क मार्ग से ही तारापीठ पंहुच सकते हैं. इसके अलावा नई दिल्ली-हावड़ा मेन लाइन पर झारखंड के जसीडीह जंक्शन से भी आप सड़क मार्ग से देवघर-दुमका होकर रामपुरहाट पहुंच सकते हैं. जसीडीह से तारापीठ की कुल दूरी 137 किमी है. वहीं कोलकाता से तारापीठ की दूरी 250 किमी है. कहने का मतलब है कि तारापीठ आप रेल और सड़क दोनों मार्ग से पहुंच सकते हैं. हालांकि तारापीठ रेलवे स्टेशन भी है, लेकिन वहां पर एक्सप्रेस ट्रेनों का ठहराव नहीं है. उधर आप झारखंड के दुमका से 77 किमी की दूरी पर तारापीठ है. दुमका से भी बस और टैक्सी से धार्मिक स्थल पहुंच सकते हैं.

ये विडियो जरूर देखें

तांत्रिक विद्या का सबसे बड़ा केंद्र माँ तारापीठ मंदिर

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Parnert

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